Sunday, September 5, 2010

व्यवहार

रियासत काल कि बात हैं | एक महारानी को एक दिन नदी-विहार कि सुझी | आदेश मिलने कि देर थी, तत्परता के साथ उपवन में व्यवस्था कि गई | महारानी ने जी भर कर विहार का आनंद लिया | दिन ढलने लागा ओर शीतल हवाएं चली तो महारानी को सर्दी अनुभव हुई , उन्होने सेविकाओ को अग्नि का प्रबंध करने का आदेश दिया सेविकाओ ने काफी खोज-बीन कि लेकीन सुखी लकडीयां नही मिली | उन्होने महारानी को अपनी असमर्थता बताई | महारानी ने आदेश दिया - "सामने जो झोपडिया दिख रही हैं , उन्ही को ईंधन के रूप में काम में लिया जाए " झोपडिया तोड-फोड दी गाई और महारानी के लिये आग तापने का प्रबंध हो गया |
दुसरे दिन झोपडी वालो ने महाराजा ने गंभीरता पूर्वक विचार किया | उन्होने स्वयं को उन गरीबो कि जगह रख कर देखा - उनकी वेदना का अनुभव किया | तब निर्णय दिया कि महारानी राजमहल छोडकर निकले , हाथ में कटोरा लेकर भिक्षा मांग कर धन एकत्र करे, उस धन से झोपडिया का पुनर्निर्माण कराए ; तभी पुनः राजमहल में प्रवेश करे |
अस्तु ! दुसरो कि वेदना का अनुभव करने के लिये हमें स्वयं को उसके स्थान पार खडा होना पडेगा | महापुरुष एक शाश्वत नियम बात गये हैं - 'दुसरों के साथ वही व्यवहार करो, जो तुम्हे अपने लिये पसंद हो ' ऐसे व्यवहार के लिये व्यक्ती को अपना 'स्व' छोडना पडेगा | जाब हम अपने सोच को इस दिशा में ले जाएंगे , तभी अपने कर्तव्य का सही निर्धारण कर पाएंगे | '

आपका आपना,

कैलाश 'मानव
'

2 comments:

  1. प्रेरक प्रसंग !

    अच्छा लगा ।

    ReplyDelete
  2. मेरी ज़िन्दगी की तमाम इच्छॉओ में से एक इच्छा य़े भी है । कभी मै आपसे रूबरू हो सकूँ ।

    ReplyDelete