दुसरे दिन झोपडी वालो ने महाराजा ने गंभीरता पूर्वक विचार किया | उन्होने स्वयं को उन गरीबो कि जगह रख कर देखा - उनकी वेदना का अनुभव किया | तब निर्णय दिया कि महारानी राजमहल छोडकर निकले , हाथ में कटोरा लेकर भिक्षा मांग कर धन एकत्र करे, उस धन से झोपडिया का पुनर्निर्माण कराए ; तभी पुनः राजमहल में प्रवेश करे |
अस्तु ! दुसरो कि वेदना का अनुभव करने के लिये हमें स्वयं को उसके स्थान पार खडा होना पडेगा | महापुरुष एक शाश्वत नियम बात गये हैं - 'दुसरों के साथ वही व्यवहार करो, जो तुम्हे अपने लिये पसंद हो ' ऐसे व्यवहार के लिये व्यक्ती को अपना 'स्व' छोडना पडेगा | जाब हम अपने सोच को इस दिशा में ले जाएंगे , तभी अपने कर्तव्य का सही निर्धारण कर पाएंगे | '
आपका आपना,
कैलाश 'मानव'
कैलाश 'मानव'
प्रेरक प्रसंग !
ReplyDeleteअच्छा लगा ।
मेरी ज़िन्दगी की तमाम इच्छॉओ में से एक इच्छा य़े भी है । कभी मै आपसे रूबरू हो सकूँ ।
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